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फसल विशेष

अलसी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

अलसी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

आज हम आपको अलसी की फसल से संबंधित विस्तृत जानकारी देने वाले हैं। विश्व की छठी सबसे बड़ी तिलहन फसल है। अलसी के फायदों को देखते हुए किसानों की इसकी खेती के प्रति निरंतर चिलचस्पी बढ़ती जा रही है। भारत में अलसी एक महत्वपूर्ण रबी तिलहन फसल साथ ही तेल और रेशे का एक प्रमुख स्रोत भी है। भारत के अंदर अलसी की खेती तकरीबन 2.96 लाख हेक्टेयर भूमि के हिस्से में होती है, जो विश्व के समकुल रकबे का 15 फीसद है। अलसी रकबे की दृष्टि से भारत का दुनियाभर में द्वितीय स्थान है। वहीं, उत्पादन में तीसरा और उपज प्रति हेक्टेयर में आठवाँ स्थान रखता है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि यह भारत की सबसे महत्वपूर्ण औद्योगिक तिलहन फसल है। अलसी की भिन्न-भिन्न किस्मो के आधार पर इसका उत्पादन भी अलग होता है। इसकी फसल से 10 से 15 क्विंटल उत्पादन प्रति हेक्टेयर खेत से अर्जित किये जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश, ओडिशा, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र प्रमुख अलसी उत्पादक राज्य हैं। भारत में अलसी प्रमुख तौर पर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और बिहार राज्यों में पैदा की जाती है। अलसी के हर एक हिस्से का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न रूपों में इस्तेमाल किया जा सकता है। अलसी के बीज से निकलने वाला तेल सामान्यतः खाने के तौर पर इस्तेमाल में नही लिया जाता है। इसका उपयोग दवाइयाँ निर्मित करने में किया जाता है।

अलसी की खेती के लिए भूमि का चयन

अगर आप अलसी की खेती करने की मन में ठान चुके हैं, तो सबसे पहले आपको अलसी की बिजाई से पूर्व खेत मतलब कि भूमि का चयन करना होगा। बतादें, कि अलसी की बुवाई से पूर्व अपने खेत की मृदा और जल की जांच जरूर कराएं। अलसी की खेती के लिए काली दोमट मृदा उपयुक्त मानी जाती है। यह मृदा ज्यादा उपजाऊ होती है। साथ ही, जमीन तैयार करते वक्त ख्याल रखें कि जमीन में जल निकास की बेहतरीन व्यवस्था हो। इससे फसल में सिंचाई करने में भी काफी सुविधा रहेगी। साथ ही, फसल का उत्पादन भी काफी बढेगा।

अलसी की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

अलसी के लिए सामान्य पीएच मान वाली भूमि अनुकूल मानी जाती है।
अलसी की खेती को ठंडी एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। अलसी की खेती भारत में ज्यादातर रबी सीजन में की जाती है। इस दौरान वार्षिक वर्षा 50 से 55 सेटीमीटर के बीच होती है। वहां, अलसी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अलसी के बेहतर अंकुरण के लिए 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान और बीज बनने के दौरान तापमान 15 से 20 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए। अलसी को परिपक्व अवस्था पर उच्च तापमान, कम नमी और शुष्क वातावरण की जरूरत होती है। मतलब कि इसकी खेती के लिए सम-शीतोष्ण जलवायु उपयुक्त मानी जाती है।

अलसी की बिजाई कब की जाती है

किसान भाइयों को यह मशवरा दिया जाता है, कि वे अलसी के बीजों की बिजाई के लिए सिंचित जगहों पर नवंबर एवं असिंचित क्षेत्रो में अक्टूबर के प्रथम पखवाडे में बिजाई करें। इसके अतिरिक्त उतेरा खेती के लिये धान कटने के 7 दिन पूर्व बिजाई की जानी चाहिये। बतादें, कि उतेरा पद्धति धान लगाये जाने वाले इलाकों में प्रचलित है। धान की खेती में नमी का सदुपयोग करने के उद्देश्य से धान के खेत में अलसी बोई जाती है। उतेरा पद्धति में धान फसल कटाई के 7 दिन पूर्व ही खेत में अलसी के बीज को छटक दिया जाता है। इससे धान की कटाई से पूर्व ही अलसी का अंकुरण हो जाता है। इससे यह लाभ होता है, कि संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार होती है। जल्दी बिजाई करने पर अलसी की फसल को फली मक्खी और पाउडरी मिल्डयू इत्यादि से बचाया जा सकता है।

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अलसी की प्रमुख उन्नत किस्में

अलसी की उन्नत किस्में कृषि अनुसंधान द्वारा विकसित की जाती हैं। असिंचित क्षेत्रों के लिए और सिंचित क्षेत्रों के लिए असली की प्रजातियों को दो हिस्सों में विभाजित किया है, जिन्हें अधिक उत्पादन और जलवायु के अनुरूप उगाया जाता है। सिंचित इलाकों के लिये- सुयोग, जे एल एस- 23, पूसा- 2, पी के डी एल- 41, टी- 397 इत्यादि प्रमुख किस्म हैं। इन किस्मों को सिंचित क्षेत्रों के लिए विकसित किया है। इन किस्मों को तकरीबन दोनों ही क्षेत्रों में उगा सकते हैं। वहीं, इनके उत्पादन की बात करें, तो 13 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो सकती है। असिंचित इलाकों के लिये - शीतल, रश्मि, भारदा, इंदिरा अलसी- 32, जे एल एस- 67, जे एल एस- 66, जे एल एस- 73 इत्यादि प्रमुख किस्में है। इन किस्मों को असिंचित क्षेत्रों में खेती के लिए तैयार किया गया है। इन किस्मों में लगने वाले पौधों की लम्बाई औसतन 2 फीट तक होती है। साथ ही, पैदावार 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से हो सकती है। उपरोक्त किस्मों के अतिरिक्त भी अलसी की बहुत सारी अन्य उन्नत किस्में भी हैं। जैसे - पी के डी एल 42, जवाहर अलसी दृ 552, जे. एल. एस. - 27, एलजी 185, जे. एल. एस. - 67, पी के डी एल 41, जवाहर अलसी - 7, आर एल - 933, आर एल 914, जवाहर 23, पूसा 2 इत्यादि।

कैसे करें बीजोपचार ?

अलसी के बिजाई दो तरह से की जाती है। पहले ड्रिल विधि के माध्यम से और दूसरी उतेरा (छिडककर) पद्धति से बीजों की बुवाई की जा सकती है। ड्रिल विधि के माध्यम से अलसी की बुवाई के लिए 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीजों की आवश्यकता होती है। इस विधि में कतार से कतार के मध्य का फासला 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सेंटीमीटर तक रखनी चाहिये। बीज को जमीन में 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिये। उतेरा पद्वति के लिये 40 से 45 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर अलसी की बुआई के लिए अच्छी मानी जाती है। बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा या ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बिजाई करनी चाहिए।

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अलसी की खेती के लिए खेत की तैयारी

अलसी की खेती में बीज के अंकुरण एवं उचित फसल बढ़ोतरी के लिए जरूरी है, कि बुआई से पहले खेत को बेहतर ढ़ंग से तैयार कर लिया जाए। फसल कटाई के उपरांत खेत में 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी गली गोबर की खाद का छिडक़ाव कर मृदा पलटने वाले देशी हल अथवा हैरो से 2 से 3 बार जुताई कर गोबर की खाद को मिलाकर जमीन तैयार करनी चाहिए। इसके उपरांत पाटा चलाकर खेत को एकसार कर लेना चाहिए, जिससे कि जमीन में नमी बरकरार बनी रहे।

खाद किस तरह से डालें

बतादें, कि अलसी की खेती के लिए भूमि की तैयारी के दौरान 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद अंतिम जुताई में मृदा में बेहतर ढंग से मिलाकर करें। इसके साथ-साथ सिंचित क्षेत्रों के लिए नाइट्रोजन 100 किलोग्राम, फॉस्फोरस 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। असिंचित इलाकों के लिए बेहतरीन पैदावार पाने हेतु नाइट्रोजन 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस 40 कि.ग्रा. और 40 कि.ग्रा. पोटाश की दर से प्रयोग करें। असिंचित स्थिति में नाइट्रोजन व फॉस्फोरस और पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नाइट्रोजन की आधी मात्रा व फॉस्फोरस की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय चोगे द्वारा 2-3 से.मी. नीचे प्रयोग करें। सिंचित दशा में नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा टॉप ड्रेसिंग के रुप में पहली सिंचाई के पश्चात करें।

किसान अपनी अलसी की फसल में लगने वाले रोग और कीटों कैसे संरक्षण करें

अलसी की खेती में अल्टरनेरिया झुलसा, रतुआ अथवा गेरुई, उकठा और बुकनी रोग लगता है। इन रोगों की रोकथाम के लिए फसल में मैन्कोजेब 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 40 से 50 दिन बुवाई के बाद छिडकाव करें। हर 15 दिन के समयांतराल पर छिडकाव करते रहना चाहिए, जिससे की रोग न लग सके। रतुआ अथवा गेरुई और बुकनी रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।

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रोग व कीटों से जुड़ी समस्त समस्याओं के हल हेतु हेल्पलाइन नंबर जारी हुआ कीट प्रकोप - अलसी की फसल में फली मक्खी, इल्ली इत्यादि विभिन्न प्रकार के कीटों का प्रकोप होता है। इसके प्रौढ़ कीट गहरे नारंगी रंग के छोटी मक्खी जैसे होते हैं। ये कीट अपने अंडे फूलो की पंखुडियों में देते है, जिससे पौधे में फूलों से बीज नहीं बन पाते हैं। यह कीट उत्पादन को 70 फीसद तक प्रभावित करता है। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 36 ईसी, 750 मिलीलीटर या क्युनालफास 1.5 लीटर मात्रा 900 से 1000 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।

अलसी का तेल कितनी चीजों में उपयोग किया जाता है

अलसी भारत की महत्वपूर्ण औद्योगिक तिलहन फसलों में से एक है। भारत में अलसी की फसल का व्यापारिक उद्देश्य से उत्पादन किया जाता है। इसकी खेती रेशेदार फसल के तौर पर की जाती है। अलसी के बीजो में तेल की मात्रा काफी ज्यादा विघमान होती है। परंतु, इसके तेल का इस्तेमाल खाने में न करके दवाइयों को निर्मित करने में किया जाता है। इसके तेल को वार्निश, स्नेहक, पेंट्स को तैयार करने के अलावा प्रिंटिंग प्रेस के लिए स्याही एवं इंक पैड को तैयार करने में किया जाता है। म.प्र. के बुन्देलखंड क्षेत्र में इसका तेल खाने में, साबुन बनाने और दीपक जलाने में किया जाता है। अलसी का बीज फोड़ों फुन्सी में पुल्टिस बनाकर इस्तेमाल किया जाता है। अलसी के तने से उच्च गुणवत्ता वाला रेशा अर्जित किया जाता है। साथ ही, रेशे से लिनेन भी निर्मित किया जाता है। अलसी की खली दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। वहींं, खली में विभिन्न पौध पौषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होने की वजह से इसका इस्तेमाल खाद के तौर पर किया जाता है।

अलसी का सेवन करने से बहुत सारी बीमारियों में फायदा मिलता है

अलसी का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद होता है। इसके बीज एवं इसका तेल बहुत सारी बीमारियों की रोकथाम में फायदेमंद है। अलसी विश्व की छठी सबसे बड़ी तिलहन फसल है। इसमें लगभग 33 से 45 प्रतिशत तेल और 24 प्रतिशत कच्चे प्रोटीन होता है, यह एक चमत्कारी आहार है। इसमें दो आवश्यक फैटी एसिड पाए जाते हैं, अल्फा-लिनोलेनिक एसिड और लिनोलेनिक एसिड। अलसी के नियमित सेवन किया जाए तो कई प्रकार के रोगों जैसे कैंसर, टी.बी., हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कब्ज, जोड़ों का दर्द आदि कई रोगों से बचा जा सकता है। यह हमारे शरीर में अच्छे कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को बढ़ाता है और ट्राइग्लिसराइड कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को कम करने में सहायक होता है। यह हमारे हृदय की धमनियों में खून के थक्के बनाने से रोकता है और हृदय घात व स्ट्रोक जैसी बीमारियों से भी हमारा बचाव करता है। यह एंटीबैक्टेरियल, एंटीवायरल, एंटीफंगल, एंटीऑक्सीडेंट तथा कैंसर रोधी है। अलसी में तकरीबन 28 फीसद रेशा होता है और यह कब्ज के रोगियों के लिए काफी फायदेमंद साबित होता है।

फसल कटाई के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें

अलसी की फसल बिजाई के करीब 100 से 120 दिनों पश्चात तैयारी हो जाती है। जब अलसी की फसल पूरी तरह से सूखकर पक जाए तभी इसकी कटाई करनी चाहिए। फसल की कटाई के शीघ्र बाद मड़ाई कर लेनी चाहिए। इससे इसके बीजों को कोई ज्यादा हानि नहीं होगी। अलसी की फसल की उपरोक्त विधि से खेती करने पर भिन्न-भिन्न किस्मों का उत्पादन भिन्न भिन्न होता है। प्रथम बीज उद्देशीय सिंचित दशा में 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और असिंचित दशा में 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और दो-उद्देशीय संचित और असिंचित दशा में 20 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और 13 से 17 प्रतिशत तेल व 38 से 45 प्रतिशत तक रेशा अर्जित किया सकता है।
विश्व प्रसिद्ध सोजत मेहंदी की सबसे ज्यादा खेती कहाँ होती है

विश्व प्रसिद्ध सोजत मेहंदी की सबसे ज्यादा खेती कहाँ होती है

राजस्थान के पाली जनपद में सोजत मेहंदी की सबसे अधिक खेती होती है। यहां के छोटे-बड़े कारोबारी मेहंदी का कारोबार कर के अपने परिवार का भरण-पोषण बेहद अच्छे ढ़ंग से कर रहे हैं। यहां की मेहंदी को जीआई टैग भी प्राप्त हो चुका है। जीआई टैग मिलने के उपरांत यहां के कारोबारियों की जिम्मेदारियां काफी बढ़ गई हैं। अपने कारोबार के प्रति इतने इमानदार हैं, कि आज सोजत मेहंदी पूरी दुनिया की सर्वाधिक विश्वसनीय मेहंदी ब्रांड बन चुका है। मेहंदी का नाम कान में पड़ते ही हमारे दिमाग में हाथों पर तरह-तरह की उकेरी गई डिजाईन उभर आती हैं। वहीं, लाल रंग की मेहंदी के लिए सोजत मेंहदी पूरे विश्व में अपनी एक अलग पहचान बना चुकी है। इस मेहंदी के साथ महिलाओं का भरोशा इतना मजबूत है, कि जिसकी कोई हद नहीं है। किसी और मेहंदी को लेकर सभी को एक दुविधा सी रहती है, कि ये हाथ में लगाने के उपरांत चटक रंग छोड़ेगा अथवा नहीं। वहीं, कोई दूसरी मेहंदी इतना लाल रंग छोड़ रही है, तो एक दुविधा ये भी रहती है, कि कहीं इसमें कोई रसायन तो नहीं मिलाया गया है। परंतु, सोजत मेहंदी के साथ ऐसा कुछ नहीं है।

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सोजत मेहंदी की दिन-प्रतिदिन बढ़ती विश्वसनीयता

लोगों के बीच इसकी विश्वसनीयता दिन-प्रति दिन बढ़ती ही जा रही है। जानकारी हो, कि राजस्थान के पाली जनपद में सोजत मेहंदी की सबसे ज्यादा खेती होती है। यहां के छोटे-बड़े व्यापारी मेहंदी का व्यापार कर के अपने परिवार का भरण-पोषण काफी अच्छे से कर रहे हैं। यहां की मेहंदी को जीआई टैग भी प्राप्त हो चुका है। जीआई टैग मिलने के बाद यहां के कारोबारियों की जिम्मेदारियां काफी बढ़ गई हैं। वहां के कारोबारी अपने कारोबार के प्रति इतने इमानदार हैं, कि आज सोजात मेहंदी संपूर्ण विश्व का सबसे ज्यादा विश्वसनीय मेहंदी ब्रांड बन चुका है।

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मेहंदी को महिला श्रृंगार का एक महत्वपूर्ण भाग माना जाता है

प्रत्येक धर्म की महिलाओं के श्रृगांर में मेहंदी का अपना विशेष महत्व है। एक तरह से हम कह सकते हैं, कि मेहंदी के बिना किसी भी धर्म की महिलाओं का श्रृंगार अधूरा ही रहता है। विशेष अवसर पर मेहंदी की महत्वता काफी बढ़ जाती है। विशेषकर मांगलिक अवसर पर अथवा तीज-त्योहार में सावन के महीने में महिलाएं हाथों में मेहंदी लगा कजरी गाती हैं। इन समस्त अवसरों पर महिलाओं की पहली पसंद सोजत मेहंदी ही है। क्योंकि, यह पूरी तरह से रसायन मुक्त होता है, जिसकी वजह से हाथों में जो चटक रंग चढ़ता है। सोजत मेहंदी का अपना रंग होता है, बिल्कुल नेचुरल जिससे किसी भी तरह से त्वचा को नुकसान नहीं पहुंचता है।

महिलाओं की सोजत मेहंदी के व्यापार में हिस्सेदारी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि आज हर क्षेत्र में महिलाओं की सहभागिता बढ़ती ही जा रही है। महिलाओं का विश्वास जितना आज सोजत मेहंदी पर उतना किसी और मेहंदी पर नहीं होता है। आज बहुत सारी महिलाऐं व्यूटी पार्लर चला रहीं हैं अथवा स्वतंत्र रुप से शादी-विवाह में जाकर मेहंदी लगाती हैं। दरअसल, वे सभी सामान्यतः सोजत मेहंदी ही लगाती हैं। एक आंकड़े के अनुसार, मेहंदी के कारोबार में 80 प्रतिशत महिलाओं की हिस्सेदारी है।
जानें मेथी की इन टॉप पांच उन्नत किस्मों के बारे में

जानें मेथी की इन टॉप पांच उन्नत किस्मों के बारे में

मेथी की यह टॉप पांच उन्नत प्रजतियाँ पूसा कसूरी, आर.एस.टी 305, राजेंद्र क्रांति, ए.एफ.जी 2 एवं हिसार सोनाली प्रजाति किसानों को कम समय में ही प्रति एकड़ लगभग 6 क्विंटल तक उपज देती हैं। बाजार में इन किस्मों कीमत भी काफी अधिक है। मेथी एक प्रकार की पत्तेदार वाली फसल है, जिसका उत्पादन भारत के तकरीबन समस्त किसान अपने खेत में कर बेहतरीन व शानदार कमाई कर रहे हैं। दरअसल, मेथी हमारे शरीर के लिए बेहद लाभकारी होती है। क्योंकि, इसके अंदर प्रोटीन, सूक्ष्म तत्त्व विटामिन विघमान होते हैं। इसलिए बाजार में इसकी मांग सबसे ज्यादा होती है। ऐसी स्थिति में यदि आप मेथी की उन्नत किस्मों की खेती करते हैं, तो आप कम वक्त में भी शानदार उपज हांसिल कर सकते हैं। मेथी की ये टॉप पांच उन्नत किस्में पूसा कसूरी, आर.एस.टी 305, राजेंद्र क्रांति, ए.एफ.जी 2 और हिसार सोनाली प्रजाति हैं, जो प्रति एकड़ में तकरीबन 6 क्विंटल तक उत्पादन देने में सक्षम हैं।

मेथी की टॉप पांच उन्नत किस्में निम्नलिखित हैं

मेथी की राजेंद्र क्रांति किस्म

मेथी की राजेंद्र क्रांति प्रजाति से किसान प्रति एकड़ तकरीबन 5 क्विंटल तक शानदार पैदावार हांसिल कर सकते हैं। मेथी की यह किस्म खेत में तकरीबन 120 दिनों के अंदर पककर तैयार हो जाती है।

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मेथी की पूसा कसूरी किस्म

मेथी की पूसा कसूरी किस्म में फूल काफी विलंभ से आते हैं। किसान इस किस्म की एक बार बिजाई करने के बाद लगभग 5-6 बार उपज प्राप्त कर सकते हैं। मेथी की इस किस्म के दाने छोटे आकार के होते हैं। किसान पूसा कसूरी से प्रति एकड़ 2.5 से 2.8 क्विंटल उपज आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।

मेथी की आर.एम.टी. 305 किस्म

मेथी की यह किस्म बेहद शीघ्रता से पककर तैयार हो जाती है। मेथी की आर.एम.टी. 305 किस्म में चूर्णिल फफूंद रोग और मूल गांठ सूत्रकृमि रोग नहीं लगते हैं। किसान इस प्रजाति से प्रति एकड़ लगभग 5.2 से 6 क्विंटल तक उत्पादन हांसिल कर सकते हैं।

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मेथी की ए.एफ.जी 2 किस्म

मेथी की इस प्रजाति के पत्ते बेहद चौड़े होते हैं। किसान मेथी की ए.एफ.जी 2 किस्म की एक बार बिजाई करने के पश्चात लगभग 3 बार कटाई कर उत्पादन हांसिल कर सकते हैं। इस किस्म के दाने छोटे आकार में होते हैं। किसान मेथी की इस प्रजाति से प्रति एकड़ 7.2 से 8 क्विंटल पैदावार अर्जित कर सकते हैं।